नई दिल्ली ( इंडिया साइंस वायर): पिछले कुछ दशकों में तकनीकी विकास के साथ प्रकाश प्रदूषण की समस्या भी बढ़ रही है। जिसका जीवों की दृष्टि पर जटिल और अप्रत्याशित प्रभाव पड़ रहा है। आपने भी अपने आसपास गौर किया होगा की यह कृत्रिम प्रकाश उन जीवों को अधिक प्रभावित करता है, जो रात्रि में देख पाने की क्षमता पर रखते हैं।
ब्रिटेन के एक्सेटर विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा एक अध्ययन में पता चला है कि प्रकाश प्रदूषण के रंगों और इसकी तीव्रता में परिवर्तन के परिणामस्वरूप पिछले कुछ दशकों के दौरान जीव-जंतुओं की दृष्टि पर जटिल और अप्रत्याशित प्रभाव पड़ रहे हैं।
इन प्रभावों का पता लगाने के लिए शोधकर्ताओं ने कीट-पतंगों और उन्हें अपना शिकार बनाने वाले पक्षियों की दृष्टि पर 20 से अधिक प्रकार की रोशनी के प्रभाव की जाँच की है। शोधकर्ताओं द्वारा किया गया यह अध्ययन दुनियाभर में प्रकाश प्रदूषण के कारण बढ़ते पर्यावरणीय खतरों के प्रति सचेत करता है। शोध में पाया गया कि एलीफैंट हॉकमोथ के देखने की क्षमता कुछ प्रकार की रोशनियों में बढ़ गई थी, जबकि अन्य ने उन्हें बाधित किया गया था। वहीं इनका शिकार करने वाले पक्षियों की दृष्टि में लगभग सभी प्रकार के प्रकाश में सुधार देखा गया था।
पूरी दुनिया में रात के समय में प्रकाश व्यवस्था का स्वरूप पिछले करीब 20 वर्षों के दौरान नाटकीय रूप से परिवर्तित हुआ है। संतरी रंग की रोशनी देने वाली कम दबाव सोडियम से युक्त एम्बर स्ट्रीट-लाइट्स अब चलन से बाहर हो रही हैं, और इनकी जगह एलईडी जैसे विविध प्रकार के आधुनिक रोशनी उपकरण ले रहे हैं। एक्सेटर विश्वविद्यालय और इस शोध से जुड़े शोधकर्ता जूलियन ट्रोसियांको ने बताया कि, “आधुनिक ब्रॉड-स्पेक्ट्रम प्रकाश व्यवस्था मनुष्यों को रात में अधिक आसानी से रंगों को देखने में सक्षम बनाती है।
हालांकि, यह जानना मुश्किल है कि ये आधुनिक प्रकाश स्रोत अन्य जीव-जंतुओं की दृष्टि को कैसे प्रभावित करते हैं।”
उनके अनुसार हॉकमोथ की आंखें नीले, हरे और पराबैंगनी रंगों के प्रति संवेदनशील होती हैं, और वो इसका उपयोग मधुमक्खियों की तरह फूलों को खोजने में मदद करने के लिए करते हैं। यहां तक कि वो इसकी मदद से अविश्वसनीय रूप से बहुत कम उजाले जैसे तारों की रौशनी में भी फूलों को ढूंढ सकते हैं।
शोधकर्ताओं का कहना है कि “पतंगों को भी मधुमक्खियों के समान परागण करने वाले महत्वपूर्ण कीटों के रूप में जाना जाता है। इसलिए, हमें तत्काल इस बात की पड़ताल करने की आवश्यकता है कि प्रकाश उन्हें कैसे प्रभावित करता है।” उन्होंने जानकारी दी कि इसे समझने के लिए हमने प्राकृतिक और कृत्रिम प्रकाश में जीवों के देखने की क्षमता की मॉडलिंग की थी, जिससे पता चल सके कि उस प्रकाश में पतंगे फूलों को किस तरह ढूंढते हैं और पक्षी इन पतंगों को कैसे देखते हैं।
अध्ययन में, फूलों के रंगों को देखने की कीट-पतंगों की क्षमता का आकलन करने के लिए कृत्रिम एवं प्राकृतिक प्रकाश के विभिन्न स्तरों में जीव-जंतुओं की दृष्टि से संबंधित मॉडलिंग का उपयोग किया गया है। इसी तरह, छद्म आवरण के माध्यम से अपनी उपस्थिति को छिपाकर रखने वाले कीट-पतंगों को देखने की पक्षियों की दृष्टि क्षमता का भी आकलन किया गया है। यदि इंसान को ध्यान में रखकर डिज़ाइन की गई कृत्रिम रोशनी की बात करें तो उसमें नीली और पराबैंगनी रेंज की कमी होती है जो पतंगों को देखने के लिए बहुत जरुरी होती हैं।
कई परिस्थितियों में इनकी कमी पतंगों के किसी भी रंग को देखने की क्षमता को बाधित कर देती है। जिससे उनके लिए जंगली फूलों को ढूंढना और परागण करना कठिन हो जाएगा। इसी तरह उनका अपने शिकारियों से बचने के लिए उपयुक्त स्थान खोजना मुश्किल हो रहा है। इसके विपरीत, पक्षियों की दृष्टि कहीं ज्यादा बेहतर होती है, जिसका मतलब है कि यह कृत्रिम प्रकाश उन्हें छुपे हुए पतंगों को ढूंढ़ने में मदद करेगा, जिससे वो सूरज छुपने और उगने से पहले भी अपने शिकार को ढूंढ लेंगें।
सिंथेटिक फ्लोरोसेंट फॉस्फोर में परिवर्तित एम्बर एलईडी लाइटिंग को अक्सर रात के कीड़ों के लिए कम हानिकारक बताया जाता है। हालांकि, अध्ययन में पाया गया है कि प्रकाश स्रोत से दूरी और देखी गई वस्तुओं के रंगों का कीटों की देखने की क्षमता पर अप्रत्याशित असर होता है। सफेद रोशनी (अधिक नीले रंग के घटक के साथ) कीट-पतंगों को अधिक प्राकृतिक रंग देखने में सक्षम बनाती है। लेकिन, इन प्रकाश स्रोतों को अन्य प्रजातियों के लिए हानिकारक माना जाता है।
देखा जाए तो दुनिया भर में कीटों की संख्या घट रही है। वहीं कीटों की 40 फीसदी से अधिक प्रजातियों पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। लेकिन प्रकाश प्रदूषण विशेष रूप से रात्रिचर कीटों पर असर डाल रहा है, यह बात सही है और इसके पुख्ता प्रमाण हैं। ऐसे में शोधकर्ताओं ने कहा है कि जहां तक मुमकिन हो रात्रि में कृत्रिम प्रकाश के उपयोग और उसकी तीव्रता को सीमित करने के प्रयास किए जाने चाहिए । जिससे उनपर पड़ने वाले प्रभावों को कम किया जा सके। यूनिवर्सिटी ऑफ एक्सेटर द्वारा किया गया यह शोध जर्नल नेचर कम्युनिकेशन्स में प्रकाशित हुआ है।